हाशिया

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हाशिये पर हाथों से
जो लक़ीर खींची थी
खिंचा-खिंचा
महसूस करा रही है

मेरे दस्तख़त मुझसे
क्यों पहचान माँगते हैं

मैं कौन हूँ
इस बात से मुझे
असमंजस में डालते हैं

ख़ालिस ख़्वाबों के पर
परवान चढ़ रहे थे,
मालूम नहीं पर कब
पर-अपर हुए
या ख़्वाब अपर!

आज मैं घर पे बैठा हूँ

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आज मैं घर पे बैठा हूँ

बेख़याल, बदहवास, बेलिबास
आज मैं ख़ुद में खोया हूँ;

बिजली के आने-जाने से
बदगुमान, मैं जागा-सोया हूँ;

मोबाइल के मुखड़े की
टकटकी से, मैं सहमा-सहमा हूँ;

पन्नों के खालीपन, और ख़यालों के
भारीपन से, मैं ठहरा बैठा हूँ;

शौक़ों की लड़ाई में
वक़्त से, मैं उखड़ा रहता हूँ;

अँधेरे-उजालों के खेल की
नागवारी से, मैं भटका रहता हूँ;

आज मैं छुट्टियों का
खालीपन लिए, घर पे बैठा हूँ।

कोरी कलम

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क़ागज़ रंगे गए
दिन श्याम हुए
जलते-बुझते दीयों
की रौशनी में
विचारों की हिलोरों ने
कुछ नव नित किया
गए दूर, ऐनक साफ़ की
मन बदल गया

तन कर सामने आए –
अक्षर, शब्द, पंक्तियाँ
भृकुटियाँ उठीं,
ओष्ठ विस्तृत हुए,
नैन नम हुए!

जब आत्मा की थाह ली
तब पाया
क्या खो दिया है –

मैंने जाना, कागज़ रंग गए
पर मेरी
कलम कोरी हो गई!

रंगी दीवारें

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दीवारें क्यों रंगी जाती हैं
ख़ूबसूरत घरौन्दों की?

क्या ये बाहरी रंग ही
इनको ख़ूबसूरत बनाते हैं?

सच क्या है?
बेपर्दा कुछ भी नहीं।

पर्दे भी हसीन बनाए जाते हैं
वही मकानों की पहचान बन जाते हैं

तरहे, नक्काशे, ढाले गईं
मूरत ही तो सूरत हमारी हैं

फ़लसफ़ा कुछ भी हो
बिन जाने ही हम
बजूके बन जाते हैं;

दीवारों में क़ैद, ख़ुद
पाषाण बन जाते हैं।

पर फिर भी
पथरीली मुस्कानें लिए
आगे बढ़ने का
दम भरते जाते हैं।

संसार

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तारों की क्या बिसात
जो हम उन्हें चाहते हैं?

न रूह, न रौशनी
अस्तित्व का भी पता नहीं!

सच ही तो है
चमक चाहिए चाँद की
अमावस का चाँद नहीं!

अजब सी दुनिया –
चढ़ते सूरज को सलामी देती है
सहारा नहीं पतित पल्लवों को!

आज तो
बारिश में भी मिलावट है
शुद्धता की सजावट है

रंगीन पन्नों में लिपटी
रहती है बेरंग
जिंदगियाँ जहाँ में;
अकथित कथाओं में
छुपी रहती हैं
दास्तानें यहाँ पर!

– ये बातें बेमानी हैं।

उज्ज्वलता नहीं, चमक
चहुँ ओर प्रज्वलित है;

उन तारों की पूछ नहीं
जो चमकते नहीं;

उस सूरज की टोह नहीं
जो अस्ताचल है।

– यही तो हैं
कुछ राज़ बेग़रज़
इस संसार के।

इनकार

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इनकार क्यों किया
जो था नापसंद, फिर भी
इज़हार क्यों किया?
जब आरज़ू नहीं थी
अदब से, सर-ए-आम
सलाम क्यों किया?
जब बंदिश नहीं थी कोई
यूँ तलब से तबस्सुम
नज़र क्यों किया ?
जब शिक़वा ही था
महक से
ज़ार-ज़ार क्यों किया?
चिरागों की अंजुमन में
ज़ुल्फ़ों के साये से
सेहर में शब क्यों किया?
जब कारगुज़ारियाँ इतनी कीं
इनकार क्यों किया ?

ज़िन्दगी

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धुएँ में उड़ती ज़िन्दगी
और धुंद में पलती ख़ुशी;
खाक़ की और राख़ की
परतों से झाँकती बेबसी;
राग सी निर्झरी
बहती हुई, हवा सी;
सैलाब से, और साहिल की
पनाह लेती हर घड़ी;
तख़्त से, ज़ंजीर सी
जकड़ी हुई और दबी ;
शायरी से निकली बोली
पानी सी चंचल ये चली;
कहीं किसी की क्या लगी!
हर आम से मिली;
कभी उड़ी, कभी मरी,
कभी बनी कल्पना कोरी;
करे, माने न, जी की चोरी;
श्याम न श्वेत भयी
सिर्फ़ सुन्दर, सिरफिरी;
लहरों पर चलती संगिनी
ये धुएँ में उड़ती ज़िन्दगी ।

Pictures

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Because we’ll never have pictures together
Or
Walks to known or unknown places.
But then
We’ll never have such urgers
For those kinds of
Displays, Proofs- So tangible!
Or
Footprints of remembrances
On technological numbness.
We’ll have our own
Spaces, Silences, solitude,
May be filled by
Someone else’s some day.
And then there will be, happily!
But not
Ours, and yet happy
But, We’ll never have pictures together.

अतिशयोक्ति

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तुम्हारी आतिशयोक्तियों को जो
सत्य मान लिया हमने,
साहस अब नहीं बन पड़ता
कि उनको झुठला दूँ;
क्षोभ इस वचन का है कि
आत्मप्रशंसा की इस अग्नि को
कल्पनाओं की बयार से
 हमने क्षण-क्षण सींचित किया|
यद्यपि इनको नकारने की
चेष्टा मात्र भी करूँ तो
यह भी मेरी अतिशयोक्ति होगी!

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तुम्हारी कामनाओं को जो
धर्म मान लिया हमने,
आसक्ति अब नहीं बन पड़ती
कि उनको पूरा करूँ;
लोभ तुम्हारे मन का है कि
विकार के इस कुंड को
मेरे साथ की पूर्णता से
हमने क्षण क्षण गहरा किया|
यद्यपि इसको सुधारने की
चेष्टा मात्र भी करूँ तो
यह भी मेरी अतिशयोक्ति होगी!

इनकार

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इनकार क्यों किया?
जो था नापसंद तो
इज़हार क्यों किया?
जब आरज़ू नहीं थी
अदब से सर-ए-आम
सलाम क्यों किया?
जब बंदिश नहीं थी
तलब से तबस्सुम
नज़र क्यों किया?
जब शिकवा ही था
महक से ज़ार ज़ार क्यों किया?
चिरागों के अंजुमन में
ज़ुल्फों के साये से
सेहर को शब क्यों किया?
जब कारगुज़ारियाँ इतनी कीं
इनकार क्यों किया?